Thursday, October 22, 2015

मध्यप्रदेश के शक्ति पीठ

जय माता दी
इस नवरात्रि 'भारत आज' में आपके लिए मैं लेकर आया हूं मप्र में स्थित शक्ति पीठ और प्रसिद्ध देवी मंदिरों की जानकारी। जी हां देश के इस ह्दय प्रदेश में ढेरों देवी मंदिर और शक्ति पीठ हैं, लेकिन कुछ ऐसे हैं जिनका नाम आते ही सिर श्रद्धा से झुक जाता है।

-मप्र की आस्था का केंद्र है सलकनपुर
भोपाल से 78 किलोमीटर दूर स्थित सलकनपुर एक छोटा सा कस्बा है, लेकिन यहां मप्र के कोने-कोने से भक्त आते हैं, क्योंकि यहां माँ विजयासन का मंदिर स्थापित है। हरी-भरी वादियों और ऊंचे पर्वत पर विराजमान मां विंध्यावासिनी के दर्शन करने के लिए नवरात्रि के अलावा भी पूरे साल भक्तों का तांता लगा रहता है, लेकिन क्वार और वैशाख के नवरात्रों में यहां पूरे नौ दिन मेला लगता है। जनता को कोई परेशानी नहीं हो इसके लिए मंदिर प्रबंधन द्वारा उच्चकोटि की व्यवस्थाएं की गई हैं। अब तो मंदिर के पास में एसी रूम और हाल उपलब्ध है, जिनकी बुकिंग ऑनलाइन की जाती है। वहीं मंदिर तक पहुंचने के लिए तीन रास्ते तैयार किए जा चुके हैं। इनमें पहला रास्ता लगभग 1000 सीढ़ियां का है, जहां से पैदल यात्री जाते हैं। दूसरे रास्ते से वाहन सीधे पहाड़ी पर पहुुंचते हैं और तीसरा रास्ता उड़नखटोला है जो रोपवे की मदद से मंदिर तक पहुंचाता है। सलकनपुर में विराजी सिद्धेश्वरी मां विजयासन की ये स्वयंभू प्रतिमा माता पार्वती की है जो वात्सल्य भाव से अपनी गोद में भगवान गणेश को लिए हुए बैठी हैं इसी मंदिर में महालक्ष्मी, महासरस्वती और भगवान भैरव भी विराजमान हैं। पुराणों के अनुसार देवी विजयासन माता पार्वती का ही अवतार हैं, जिन्होंने देवताओं के आग्रह पर रक्तबीज नामक राक्षस का वध कर संपूर्ण सृष्टि की रक्षा की थी। देवी विजयासन को कई भक्त कुल देवी के रूप में पूजते हैं। मां जहां एक तरफ कुंवारी कन्याओं को मनचाहे जीवनसाथी का आशीर्वाद देती हैं तो वहीं संतान का वरदान देकर भक्तों की सूनी गोद भर देती हैं।
एक कथा यह भी है
सलकनपुर देवी धाम के महंत प्रभुदयाल शर्मा ने बताया कि जिस स्थान पर रक्त बीज नामक राक्षस का वध करने के पश्चात मां दुर्गा जिस आसन पर आरूढ हुई वही सिद्ध पीठ आज मां विजयासन के नाम से जाना जाता है। यूं तो मां विजयासन के कई प्रमाण है पर इनमे से बंजारों की कथा बहुत लोकप्रिय है। प्राचीन काल में बंजारों का समुह यहा विन्ध्याचल पर्वत पर निवास करते थे एवं उनका जीवन-यापन पशु व्यवसाय करके बीतता था। बंजारांे जिन मवेशियों चराने थे उन्हीं में से कुछ पशु अदृष्य हो गए। करीब एक सप्ताह तक खोजने के बाद जब हताश हो गए तो बंजारो के ढेरे पर बंजारों को एक कन्या जिसने अपना नाम विन्ध्यवासिनी बताया ने दर्शन दिए और कहा दादा कि आप क्या खोज रहे है? बंजोरों ने अपने खोए हुए पशुओं के बारें में बताया तो विंध्यावासिनी ने कहा कि क्या आपने माता की पूजा अर्चना की? तब बंजारों ने कहा की हमें माता का स्थान पता नही है तो कन्या ने वहां एक पत्थर फेंका और उस पत्थर की दिशा में देखने पर बंजारों को मां विन्ध्यवासिनी यानी मां विजयासन विराजमान दिखाई दी। आज जिस मूर्ति के दर्शन करते हैं उसके बारें में किवदंती है कि वह तब बंजारों ने स्थापित की थी। बंजारों को देवी के दर्शन के बाद अपने पशु भी मिल गए। तभी से आज तक बंजारे वैशाख, ज्यैष्ठ, चैत्र, कुंआर माह मे नवरात्री पर्व पर लाखों की संख्या मे यहां मत्था टेकने जरूर आते हैं।

-सूनी गोद को भर देती है हरसिद्धी माता
राजधानी से 35 किमी दूर स्थित हरसिद्धी माता मंदिर में इन दिनों हजारों भक्तों का तांता लगा हुआ है। भोपाल से बैरसिया जाने वाली रोड से चार किमी अंदर स्थित माता के इस मंदिर को तरावली वाली माता के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। नवरात्रि शुरू होते ही दूर-दूर से भक्तों के आने का सिलसिला यहां शुरू हो जाता है और आखिरी तक एक लाख से भी ज्यादा लोग यहां जुट जाते हैं। प्रतिदिन भंडारे आयोजित किए जाते हैं और युवक नौ दिन तक यहां सेवा करते हैं। मान्यता है कि जिन माताओं की कोख सूनी रहती है वे जब यहां आकर मान्यता करती हैं तो संतान की प्राप्ति जरूर होती है। पूरा मंदिर परिसर 51 एकड़ में फैला हुआ है और ढाई लाख स्क्वायर फीट में केवल माता का मंदिर बना हुआ है।
जहां तारे अस्त हुए वहीं बना गया तरावली वाली माता का मंदिर
किवदंती है कि 2030 साल पहले काशी नरेश गुजरात की पावागढ़ माता के दर्शन करने गए और वहीं से माता मां दुर्गा की एक मूर्ति लेकर आए। काशी नरेश ने काशी में मां की स्थापना की और सेवा करने लगे। कहा जाता है कि माता प्रसन्न होकर प्रतिदिन काशी नरेश को सवा मन सोना देती थी। काशी नरेश इस सोने को जनता में बांट दिया करते। यह चर्चा उज्जैन तक फैल गई और यहां की जनता भी काशी के लिए पलायन करने लगी। तब उज्जैन में विक्रमादित्य का राज्य था। इस प्रकार जनता के पलायन करने से चिंतित विक्रमादित्य बेताल के साथ काशी पहुंचे। वहां बेताल की मदद से काशी नरेश काे गहरी निंद्रा में भेजकर स्वयं मां दुर्गा की पूजा करने लगे। माता ने प्रसन्न होकर उन्हें भी सवा मन सोना दिया, जिसे विक्रमादित्य ने काशी नरेश को लौटाने की पेशकश की। काशी नरेश ने विक्रमादित्य को पहचान लिया और कहा कि क्या चाहते हो? तब विक्रमादित्य ने मां को अपने साथ ले जाने की मांग की। काशी नरेश नहीं माने तो विक्रमादित्य ने 12 वर्ष तक काशी में रहकर तपस्या की और मां दुर्गा के प्रसन्न होने पर दो वरदान मांगे। पहला उनका वह अस्त्र जिससे वह मृत व्यक्ति को फिर से जीवित कर देती थी और दूसरा उज्जैन चलने का। तब माता ने कहा कि वे साथ चलेंगी, लेकिन जहां तारे छिप जाएंगे वहीं रुक जाएंगी। विक्रमादित्य ने यह बात मान ली, क्योंकि उनके साथ चमत्कारी बेताल जो था। लेकिन माता की इच्छा कुछ और थी और उज्जैन पहुंचने के पहले तार अस्त हो गए। तार अस्त होने के कारण उक्त स्थान का नाम तरावली पड़ा। माता इसी स्थान पर रुक गई तो विक्रमादित्य ने फिर उज्जैन चलने जिद की। लेकिन माता नहीं मानी। तब विक्रमादित्य ने दोबारा 12 वर्ष तक तपस्या की और अपनी बलि मां को चढ़ा दी, लेकिन मां ने विक्रमादित्य को फिर जीवित कर दिया। ऐसा तीन बार हुआ, लेकिन विक्रमादित्य नहीं माने तब चौथी बार मां ने अपनी बलि चढ़ाकर सिर विक्रमादित्य को दे दिया और कहा कि मेरे सिर को उज्जैन में स्थापित करो। अब एक ही मां के तीन रूप यानी चरण काशी में अन्नपूर्णा के रूप में, धड़ तरावली में और सिर उज्जैन में हरसिद्धी माता के रूप में पूजे जाते हैं।


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