Saturday, November 13, 2010

आखिर इतना हंगामा क्या है बरपा?

केसी सुदर्शन द्वारा सोनिया गांधी को लेकर की गई टिप्पणी से पूरे देश में बवाल है। मुद्दा कांग्रेस कार्यकर्ता वर्सेस आरएसएस हो गया। आरएसएस माहौल को देखकर बेकफुट पर चला गया, लेकिन कांग्रेस कार्यकर्ता पीछे हटने को तैयार नहीं। ऐसे में एक बात जेहन में आती है कि आखिर सोनिया गांधी का बेकग्राउंड क्या है? यही बता रहा हैं इस लेख के जरिए।

यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को फोब्र्स मैगजीन ने २००४ में सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में उनको तीसरा स्थान और २००७ में छठवां दिया। टाइम मैगजीन ने २००७-०८ में टाइम मैगजीन ने उन्हें १०० सबसे प्रभावशाली हस्तियों में शामिल किया। कभी अंग्रेजी बोलने वाली, एलाइन फ्रॉक और लॉन्ग गाउन पहनने वाली सोनिया आज पूरी तरह से भारतीय बहू हैं। कभी उनकी नागरिकता को लेकर उन पर हल्ला बोला गया तो कभी विदेशी मूल का मुद्दा उठाया गया। उतार-चढ़ाव से भरी उनकी जिंदगी में एक बार फिर से भूचाल आ गया है। इस बार उन पर सीआईए एजेंट होने, इंदिरा गांधी की हत्या और राजीव गांधी की हत्या का आरोप लगाया गया है। पूर्व संघ प्रमुख के सुदर्शन ने बड़ी बेबाकी से ये आरोप लगाए। हालांकि, इसके तुरंत बाद बचाव की मुद्रा में आए संघ ने साफ कर दिया कि इस बारे में कभी संघ में चर्चा नहीं हुई और यह पूर्ण रूप से सुदर्शन के अपने विचार हैं। फिलहाल कांग्रेस इस मुद्दे पर पीछे हटने के मूड में नहीं दिख रही है।
तीन साल की दोस्ती फिर शादी
सोनिया का जन्म इटली से ३० किमी दूर एक छोटो से गांव लुसियाना में ९ दिसंबर १९४६ को हुआ था। उनका बचपन ऑरबेसानो में गुजरा। उनके पिता भवनों का निर्माण करने वाले ठेकेदार थे, उनकी मृत्यु १९८३ में हुई थी। १९६४ में वह अंग्रेजी की पढ़ाई करने के लिए कैंब्रिज के बेल एजुकेशन ट्रस्ट के लैंग्वेज स्कूल चली गईं। १९६५ में सोनिया की राजीव गांधी से पहली बार मुलाकात एक ग्रीक रेस्टोरेंट में हुई। उस वक्त राजीव गांधी कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के ट्रिनिटी कॉलेज में पढ़ रहे थे। दोनों ने तीन साल की दोस्ती के बाद १९६८ में शादी कर ली।
राजनीति में नहीं थी दिलपस्पी
भारत आने के बाद राजीव और सोनिया गांधी दोनों को ही राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। १९७७ में इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री पद चला गया था और इसी दौरान थोड़े समय के लिए राजीव और सोनिया विदेश चले गए थे। उनके छोटे भाई संजय गांधी की २३ जून १९८० में प्लेन क्रैशन में मृत्यु और मां इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव को मजबूरी में राजनीति में आना पड़ा। राजीव के उनकी बहू मेनका गांधी के खिलाफ अमेठी से चुनाव लडऩे के दौरान सोनिया गांधी ने उनके साथ प्रचार किया। हालांकि, तब भी वह राजनीति से खुद को दूर रखती थीं और राजनीति में नहीं आना चाहती थीं। इसके बाद राजीव गांधी की हत्या ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। कांग्रेस की कमान पीवी नरसिंह राव के हाथों में आ गई। १९९६ में आम चुनाव में कांग्रेस की कमान सीताराम केसरी के हाथों में चली गई।
बच्चों को भीख मांगते देख लूंगी
पति की हत्या होने के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया से बिना पूछे ही उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा कर दी। सोनिया ने इसे स्वीकार नहीं किया। राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति अपनी घृणा व अविश्वास के चलते उन्होंने एक बार कहा था कि मैं अपने बच्चों को भीख मांगते देख लूंगी, लेकिन मैं राजनीति में कदम नहीं रखूंगी। काफी समय तक राजनीति में कदम न रख कर उन्होंने अपने बेटे और बेटी का पालन पोषण करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उधर, पीवी नरसिंहाराव के कमजोर प्रधानमंत्रित्व काल के कारण कांग्रेस 1996 का आम चुनाव भी हार गई। उसके बाद सीताराम केसरी के कांग्रेस के कमजोर अध्यक्ष होने से कांग्रेस का समर्थन कम होता जा रहा था, जिससे कांग्रेस के नेताओं ने फिर से नेहरु-गांधी परिवार के किसी सदस्य की जरूरत महसूस की। उनके दबाव में सोनिया गांधी ने 1997 में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और उसके 62 दिनों के अंदर 1998 में वो कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं।
विवादों में उछाला नाम
वोटिंग रजिस्ट्रेशन: १९८० में भारत की नागरिकता पाने से पहले सोनिया का नाम दिल्ली को वोटिंग लिस्ट में था। तब उनके पास इटली की नागरिकता थी। सोनिया ने अप्रैल १९८३ में भारत की नागरिकता ले ली थी, लेकिन वोटर लिस्ट के लिए रजिस्ट्रेशन जनवरी तक ही होने थे। इसके बावजूद उनका नाम वोटर लिस्ट में था। इसलिए यह विवाद १९८३ में भी एक बार फिर हुआ।
स्विस अकाउंट: स्विटजरलैंड की एक पत्रिका स्विजर इलस्टियारटे ने १९९१ में सोनिया पर आरोप लगाया कि वह स्विटजरलैंड में एक खाते का संचालन करती हैं, जो उनके बेटे के नाम से है। पत्रिका ने यह भी खुलासा किया था कि अकाउंट में दो बिलियन डॉलर हैं। इसके बाद भी काफी विवाद हुआ।
विदेशी मूल का मुद्दा: सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा कई बार उठाया गया। प्रणब मुखर्जी ने २७ अप्रैल १९८३ को कहा कि सोनिया गांधी ने अपना पासपोर्ट इटेलियन एंबेसी में जमा करा दिया था। इसके जवाब में विपक्ष का कहना था कि सिर्फ पासपोर्ट जमा करा देने से यह नहीं माना जा सकता है कि उन्होंने विदेशी नागरिका छोड़ दी है। मगर, १९९२ तक इटली के राष्ट्रीयता कानून के अनुसार वहां दोहरी नागरिकता लेने का प्रावधान नहीं था। इसलिए सोनिया गांधी के १९८३ में भारत की नागरिकता लेने के बाद उनकी इटली की नागरिकता स्वत: समाप्त हो गई। १९९२ के इटली की नागरिकता के नियम के अनुसार, १९९२ से पहले तक जिन व्यक्तियों की नागरिकता चली गई वे ३१ दिसंबर १९९७ से पहले दोबारा नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं। हालांकि, इस बारे में सोनिया ने कभी टिप्पणी नहीं की कि उन्होंने इटली की नागरिकता के लिए दोबारा आवेदन किया है या नहीं। गौरतलब है कि भारत में कोई भी व्यक्ति दोहरी नागरिकता नहीं ले सकता है।
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संघ की आलोचनाएं
महात्मा गांधी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से क्षुब्ध होकर 1948 में नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या कर दी थी। इसके बाद संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। गोडसे संघ और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक भूतपूर्व स्वयंसेवक थे। बाद में एक जांच समिति की जांच के बाद संघ को इस आरोप से बरी कर दिया गया और प्रतिबंध समाप्त कर दिया गया। संघ के आलोचकों ने संघ को एक अतिवादी दक्षिणपंथी संगठन बताया जाता रहा है एवं हिंदूवादी और फांसीवादी संगठन के तौर पर संघ की आलोचना की जाती रही है। जबकि संघ के स्वयंसेवकों का कहना है कि सरकार एवं देश की अधिकांश पार्टियां अल्पसंख्यक-तुष्टीकरण में लिप्त रहती हैं। संघ का यह मानना है कि ऐतिहासिक रूप से हिंदू स्वदेश में ही हमेशा से उपेक्षित और उत्पीडि़त रहे हैं। हम सिर्फ हिंदुओं के जायज अधिकारों की बात करते हैं। आलोचकों का कहना है कि ऐसे विचारों एवं प्रचारों से भारत की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद कमजोर होती है। संघ की इस बारे में मान्यता है कि हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति का नाम है, किसी विशेष पूजा पद्धति को मानने वालों को हिन्दू कहते हों, ऐसा नहीं है। हर वह व्यक्ति जो भारत को अपनी जन्म भूमि मानता है, पितृ भूमि मानता है और पुण्य भूमि मानता है वह हिन्दू है। संघ की यह भी मान्यता है कि भारत यदि धर्मनिरपेक्ष है तो इसका कारण भी केवल यह है कि यहां हिन्दू बहुमत में है। इस क्रम में सबसे विवादास्पद और चर्चित मामला अयोध्या विवाद रहा है।
संघ की उपलब्धियां
संघ की उपस्थिति भारतीय समाज के हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती हैं, जिसकी शुरुआत 1925 से हुई। उदाहरण के तौर पर 1962 के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू संघ की भूमिका से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को गणतंत्र दिवस के 1963 के परेड में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया। सिर्फ  दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहां उपस्थित हुए थे। वर्तमान समय में संघ के दर्शन का पालन करने वाले कतिपय लोग देश के सर्वोच्च पदों तक पहुंचने मे भी सफल रहे हैं। ऐसे प्रमुख व्यक्तियों में उपराष्ट्रपति पद पर भैरोसिंह शेखावत, प्रधानमंत्री पद पर अटल बिहारी वाजपेयी एवं उप प्रधानमंत्री व गृहमंत्री के पद पर लालकृष्ण आडवाणी शामिल हैं।
कौन है सुदर्शन
ेकुप्पाहल्ली सीतारमय्या सुदर्शन का जन्म १८ जून १९३१ को रायपुर में हुआ था। सुदर्शन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रह चुके हैं। वेे ९ साल की उम्र में पहली बार आरएसएस की शाखा में शामिल हुए। सुदर्शन ने सागर विश्वविद्यालय से टेलीकंयूनिकेशन में बैचेलर ऑफ इंजिनियरिंग की है। १९५४ में उन्हें आरएसएस का प्रचारक बनाया गया। आरएसएस के पूर्णकालिक सदस्यों को ही प्रचारक बनाया जाता है। एक प्रचारक के तौर पर सुदर्शन की पहली नियुक्ति रायगढ़ जिले में हुई थी। १९६४ में सुदर्शन को मध्य भारत का प्रांत प्रचारक बनाया गया। इतनी कम उम्र में ही प्रांत प्रचारक बनने से आरएसएस से जुड़े लोगों को लगने लगा था कि सुदर्शन जल्द ही आरएसएस की कमान भी संभालेंगे। १९६९ में सुदर्शन संयोजक के पद पर भी रहे। वे आरएसएस के बौद्धिक सेल के प्रमुख भी रहे। वे अलग-अलग मौकों पर शारीरिक और बौद्धिक दोनों सेल के हेड रहे हैं आमतौर पर आरएसएस में ऐसा कम होता है। सुदर्शन २००० से २००९ तक संघ के प्रमुख रहे। सुदर्शन ६ से अधिक भाषाओं के ज्ञानी हैं और इसके अलावा उन्हें कई स्थानीय और क्षेत्रीय बोलियों का भी ज्ञान है।

Friday, November 12, 2010

हिन्दुओं के लिए किए जा रहे झगड़े में हिन्दु कहीं नहीं हैं

पूरे देश में हंगामा है। एक तरफ वे लोग हैं जो सोनिया गांधी के लिए के. सुदर्शन द्वारा की गई टिप्पणी को लेकर हंगामा कर रहे हैं और दूसरी तरफ वे लोग हैं पूरी तरह से संघी हैं। इसमें हिन्दु कहीं नहीं है इसलिए ये कहना कि पूरा झगड़ा हिन्दुओं का है गलत होगा। झगड़ा केवल सड़कों पर नहीं बल्कि इंटरनेट पर भी छिड़ा है। ऐसे में भारत आज ने स्वयं कुछ लिखने की बजाय ऐसे लेखों को शामिल करने का बीड़ा उठाया जो इस पूरे मुद्दे पर खुलकर लिख रहे हैं।


अनिल सौमित्र  द्वारा लिखा गया लेख

एक बार फिर लोकतंत्र पर आपातकाल मंडरा पड़ा है. राजमाता सोनिया गांधी के सिपहसालारों ने कांग्रेसी गुण्डों, माफियाओं और लोकतंत्र के हत्यारों का आह्वान किया है कि वह देशभर में संघ कार्यालयों पर धावा बोल दे. इसका तत्काल प्रभाव हुआ और कांग्रेसी गुण्डों ने संघ के दिल्ली मुख्यालय पर धावा भी बोल दिया. ठीक वैसे ही जैसे इंदिरा गांधी की मौत के बाद सिखों को निशाना बनाया गया था. हिंसक और अलोकतातंत्रिक मानसिकता से ग्रस्त कांग्रेसी सोनिया का सच जानकर आखिर इस तरह बेकाबू क्यों हो रहे हैं?
10 नवम्बर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देशभर में अनेक स्थानों पर धरना दिया। संघ सूत्रों के अनुसार यह धरना लगभग 700 से अधिक स्थानों पर हुआ। इनमें लगभग 10 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया। हिन्दू विरोधी दुष्प्रचार की राजनीति के खिलाफ आयोजित इस धरने में संघ के छोट -बड़े सभी नेता-कार्यकताओं ने हिस्सा लिया। संघ प्रमुख मोहनराव भागवत लखनउ में तो संघ के पूर्व प्रमुख कुप्. सी. सुदर्शन भोपाल में धरने में बैठे। इसी धरने में मीडिया से बात करते हुए संघ के पूर्व प्रमुख ने यूपीए और कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी के बारे में कुछ बातें कही। इसमें मोटे तौर पर तीन बातें थी - पहली यह कि सोनिया गांधी एंटोनिया सोनिया माइनो हैं। दूसरी यह कि सोनिया के जन्म के समय उनके पिता जेल में थे और तीसरी बात यह कि उनका संबंध विदेशी खुफिया एजेंसी से है और राजीव और इंदिरा की हत्या के बारे में जानती हैं। गौरतलब है कि ये तीनों बातें पहली बार नहीं कही गई हैं। जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी सार्वजनिक रूप से कई बार इन बातों को बोल चुके हैं। गौर करने लायक बात यह है कि हिन्दू आतंक, भगवा आतंक का नारा बुलंद करने वाले और संघ की तुलना करने वाले कांग्रेसी अपने नेता के बारे में कड़वी सच्चाई सुनकर बौखला क्यों गए? लोकतंत्र की दुहाई देने वाली पार्टी अपनी नेता के समर्थन में अलोकतांत्रिक क्यों हो गई? क्या कांग्रेस स्वभाव से ही फासिस्ट है?
कांग्रेस के नेता सुदर्शन के बयान की भाषा पर विरोध जता रहे हैं। लेकिन उनकी कही बातों पर नहीं। भाषा चाहे जैसी भी हो, लेकिन कांग्रेस को मालूम है कि उसके नहले पर संघ का दहला पड़ गया है। कांग्रेस के नेता ने भी तो संघ की तुलना आतंकी संगठन सिमी से की थी। उसी कांग्रेस के नेताओं ने भगवा आतंक और हिन्दू आतंकवादी कह कर संघ को लांछित किया था। यह जरूर है कि कांग्रेस के हाथ में केन्द्रीय सत्ता की बागडोर है। संघ के हाथ में ऐसी कोई सत्ता नहीं है। कांग्रेस के बड़े नेता और केन्द्र सरकार में कांग्रेस के मंत्री चाहे तो तो जांच एजेंसियों और पुलिस को इशारा कर सकते हैं। उनके एक इशारे पर जांच की दिशा तय हो सकती है। आईबी, सीबीआई और अब एटीएस को ऐसे इशारे कांग्रेसी नेता-मंत्री करते रहे हैं। जैसे गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने पुलिस प्रमुखों की बैठक में भगवा आतंक का सिद्धांत गढ़ने की कोशिश की, जैसे दिग्विजय सिंह ने पत्रकारों से चर्चा में संघ पर आईएसआई से पैसा लेने का आरोप लगा दिया, जैसे किसी लेखक ने पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पर सीआईए से पैसा लेने का उल्लेख किया ठीक वैसे ही सुदर्शन ने कांग्रेस प्रमुख सोनिया के बारे में कुछ रहस्योद्घाटन कर दिया। कांग्रेस सड़कों पर क्यों उतर रही है? क्यों नहीं सुदर्शन के रहस्योद्घाटन की जांच करवा लेती? देश के सामने सोनिया का सच आना ही चाहिए। अगर सुदर्शन झूठे होंगे तो वे या फिर सोनिया बेनकाब हो जायेंगी। लेकिन कांग्रेस माता सोनिया के खिलाफ कांग्रेसी कुछ सुन नहीं सकते, कुछ भी नहीं।
कांग्रेस आदर्श घोटाले, कॉमनवेल्थ घोटाले, स्पेक्ट्रम घोटाले, कश्मीर, अयोध्या, नक्सलवाद और हिन्दू-भगवा आतंक के सवाल पर बुरी तरह घिर चुकी है। कर्नाटक में उसका खेल बिगड़ चुका है। बिहार चुनाव में उसकी हालत बिगड़ने वाली है। ऐसे में संघ का देशव्यापी आन्दोलन और जन-जागरण्, कांग्रेस के नाक में दम करने वाला है। संघ काफी समय बाद सड़कों पर आया है। कांग्रेस का घबराना स्वाभाविक है। कांग्रेसियों को सड़कों पर लाने और संघ के मुद्दे को दिग्भ्रमित करने का इससे अच्छा मौका और कोई नहीं हो सकता। इसलिए सोनिया माता के अपनाम के नाम पर कांग्रेसियों को सड़कों पर उताने की तैयारी हो गई। इस तैयारी की भी संघ ने हवा निकाल दी। सुदर्शन के बयान को संघ की बजाए उनका व्यक्तिगत बयान कह कर संघ ने कांग्रेसी विरोध पर पानी फेर दिया।
हालांकि आज नही तो कल सोनिया गांधी के सवाल का जवाब तो कांग्रेस को ढूंढना ही होगा। कांग्रेस चाहे न चाहे उसे देश को यह बताना ही होगा कि सोनिया, एंटोनिया सोनिया माइनो है कि नहीं? वे एक बिल्डिंग कांट्रेक्टर स्टीफेनो माइनो की पुत्री है कि नहीं? माइनों एक रूढ़िवादी कैथोलिक परिवार से है कि नहीं? सोनिया के पिता इटली के फासिस्ट तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी के प्रशंसक थे कि नही? क्या सोनिया पर अपने पिता का प्रभाव नहीं था? माइनों ने दूसरे विश्व युद्ध में रूसी मोर्चे पर नाजियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। लेखक व स्तंभकार ए.सूर्यप्रकाश द्वारा संपादित पुस्तक ‘सोनिया का सच’ में यह उद्धृत है कि सन्1977 में, जब एक भारतीय पत्रकार जावेद लैक ने देखा कि श्री माइनो के ड्राइंगरूम में मुसोलिनी के सिद्धांतों का संग्रह था और उन्होंने अच्छे पुराने दिनों को याद किया। उन्होंने लैक को बताया कि नव-फासिस्टों को छोड़कर लोकतांत्रिक इटली में किसी अन्य राजनीतिक दल के लिए उनके मन में कोई सम्मान नहीं है। उन्होंने भारतीय पत्रकार को कहा कि ये सभी दल ‘देशद्राही’ हैं। कांग्रेस के नेताओं को यह भी बताना चाहिए कि क्या सोनिया माइनो का राजनैतिक संस्कार ऐसे ही वातावरण में नहीं हुआ था?

किसी कि भाषा, मर्यादा, संस्कृति, और शैली पर आक्षेप करने के साथ ही कांग्रेस को देश की जनता के सामने यह सच भी रखने का प्रयास करना चाहिए कि सोनिया माइनो ने राजीव गांधी से विवाह के पूरे पन्द्रह वर्ष बाद 7 अप्रैल, 1983 को भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन किया। आखिर भारतीय नागरिकता के प्रति वे इतने संशय में क्यों रही? कांग्रेस के नेता कांग्रेस माता के प्रति भले ही सिजदा करें, लेकिन वे देश को यह भी बतायें कि सोनिया अपने विवाह के पन्द्रह वर्ष तक अपनी इटालियन नागरिकता के साथ रही, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वह भारत में मतदान का अधिकार प्राप्त करने के लिए उत्सुक थीं। वे जनवरी, 1980 में ही नई दिल्ली की मतदाता सूची में कैसे शामिल हो गई? जब किसी ने इस धोखाधड़ी को पकड़ लिया और मुख्य निर्वाचक अधिकारी को शिकायत कर दी तब 1982 में उनका नाम मतदाता सूची से निकाला गया। 1 जनवरी, 1983 को वे बिना भारतीय नागरिकता के ही भारत के मतदाता सूची में शामिल हो गई। किसी भी सभ्य, सुसंस्कृत, मर्यादित और कांग्रेसी शैली में कांग्रेस का कोई नेता यह सब देश के सामने क्यों नहीं रखता?
जाने-अंजाने ही सही, असामयिक ही सही लेकिन सुदर्शन ने कांग्रेस की दुखती रग पर चिकोटी काट ली है। सघ भले ही आहत हिन्दुओं को लामबंद करने, अयोध्या, कश्मीर और कांग्रेसी आदर्श भ्रष्टाचार के आगे ‘सोनिया के सच’ को नजरअंदाज कर दे, लेकिन आज नहीं तो कल उसे ही घांदी, नेहरू, माइनो और ‘बियेन्का-रॉल’ परिवार के सच को सामने तो रखना ही होगा। देश के पूर्व प्रधानमंत्री, भावी प्रधानमंत्री और श्यूडो प्रधानमंत्री के परिवार-खानदान के बारे में जानने-समझने का हक हर भारतीय का है। राजीव गांधी के नाना-नानी के साथ उनके दादा-दादी के बारे में देश को मालूम होना चाहिए। देश अपने जैसे भावी प्रधानमंत्री राहुल-प्रियंका (बियेन्का-रॉल) के दादा-दादी की तरह उनके नाना-नानी के बारे में भी कैसे अंजान रह सकता है। आखिर इस परिवार-खानदान, नाते-रिश्तेदारे के धर्म-पंथ बार-बार बदलते क्यों रहे हैं?
कांग्रेसी भले ही संघ-सुदर्शन का पुतला फूंके, लेकिन जिनके सामने वे सिजदा करते हैं उनके बारे में अपना ज्ञान जरूर दुरूस्त कर लें। संजय गांधी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट सिर्फ कांग्रेस के ही नेता, बिल्क देश के भी नेता थे। एलटीटीई ने राजीव गांधी की हत्या की। दक्षिण की राजनेतिक पार्टियां एमडीएमके, पीएमके और डीएमके लिट्टे समर्थक रहे हैं, आज भी हैं लेकिन हत्यारों के समर्थकों के साथ कांग्रेस का कैसा संबंध है? कांग्रेस जवाब दे, न दे देश तो सवाल पूछेगा ही कि जब इंदिरा को गोली लगी तो उनके साथ और कौन-कौन था, किसी एक को भी एक भी गोली क्यों नहीं लगी? घायल अवस्था में देश की प्रधानमंत्री इंदिराजी को पास के अस्पताल की बजाए इतना दूर क्यों ले जाया गया कि तब तक उनके प्राण-पखेरू ही उड़ गए? इन सब स्थितियों में महफूज और दिन-दूनी रात चैगुनी वृद्धि किसकी हुई, सिर्फ और सिर्फ सोनिया की! कौन भारतीय है जसे संदेश नहीं होगा! कांग्रेसी भी अगर अंधभक्ति छोड़ भारतीय बन देखें तो उन्हें भी सुदर्शन के सवालों में कुछ राज नजर आयेगा। वैसे भी सुदर्शन ने कुछ नया नहीं कहा है, बस जुबान अलग है बातें वहीं है जो कभी एस गुरूमूर्ति ने कही, कई बार सुब्रमण्यम स्वामी ने लिखा-कहा, पत्रकार कंचन गुप्ता ने लिखा। आज तक कांग्रेस ने किसी प्रकार के मानहानि का आरोप नहीं लगाया, कभी सड़कों पर नहीं उतरे। कांगेस कभी तो हंगामे की बजाए सवालों का जवाब दे।

सलीम अख्तर द्वारा लिखा गया लेख
जबसे आरएसएस के लोगों की आतंकवादी घटनाओं में संलिप्तता सामने आयी है, तब से आरएसएस के नेता बौखला गए हैं। इस बौखलाहट में ही शायद संघ के इतिहास में पहली बार हुआ है कि इसके स्वयंसेवक विरोध प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर उतरे। इसी बौखलाहट में आरएसएस के एक्स चीफ केएस सुदर्शन का मानसिक संतुलन बिगड़ गया और सोनिया गांधी के बारे में ऐसे शब्द बोल दिए, जिन्हें एक विकृत मानसिकता का आदमी ही बोल सकता है।
अब अगर कांग्रेस के कार्यकर्ता संघ कार्यालयों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता। सोनिया गांधी को इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या की साजिश में शामिल होने की बात कोई पागल ही कह सकता है। किसी को अवैध संतान बताने से बड़ी गाली कोई नहीं हो सकती। गलती केएस सुदर्शन की भी नहीं है। आरएसएस ने महात्मा गांधी की हत्या की। एक साजिश के तहत राममंदिर आंदोलन खड़ा करके देश के दो समुदायों के बची नफरत की दीवार खड़ी की। जो आदमी या संगठन दिन रात साजिशों में ही उलझा रहता हो, उसे दूसरे लोग भी ऐसे ही नजर आते हैं। कहते हैं कि 'चोरों को सब चोर नजर आते हैं।' आरएसएस की नीतियों की आलोचना की जाती है, लेकिन यह तो माना ही जाता रहा है कि आरएसएस के लोग अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं करते। सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करने के लिए उतरना और फिर राजनैतिक दलों की तरह अभद्र भाषा का प्रयोग करना इस बात का संकेत भी है कि शायद अब आरएसएस खुलकर राजनीति में आना चाहता है।
जब से आरएसएस नेता इन्द्रेश कुमार का नाम अजमेर ब्लास्ट में आया है, तब से आरएसएस बैकफुट पर आ गया है। इन्द्रेश कुमार के अलावा भी अनेक संघी कार्यकर्ता आतंकवादी घटनाओं में लिप्त पाए गए है। कानपुर और नांदेड़ आदि में मारे गए छोटे कार्यकर्ताओं के बारे में तो संघ ने यह कहकर पीछा छुड़ा लिया था कि उनका संघ से कोई नाता नहीं है, लेकिन इन्द्रेश कुमार के बारे में यह नहीं कह सकते कि उनका नाता संघ से नहीं है। तीन-चार साल पहले देश में आयी बम धमाकों की बाढ़ के पीछे कभी लश्कर-ए-तोएबा का तो कभी इंडियन मुजाहिदीन का तो पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का नाम लिया जाता रहा। इंडियन मुजाहिदीन का ओर-छोर भी आज तक खुफिया एजेंसियां पता नहीं लगा सकी है। मालेगांव, समझौता एक्सपेस, हैदराबाद की मक्का मस्जिद और अजमेर की दरगाह पर हुए विस्फोट और कानपुर, नांदेड़ आदि में संघ के कई कार्यकताओं के बम बनाते हुए विस्फोट में मारे जाने के बाद खुफिया एजेंसियों को शक हुआ था कि इंडियन मुजाहिदीन और लश्कर-ए-तोयबा की आड़ में कोई और भी बम धमाके करने में लिप्त हो सकता है। तब कुछ लोगों ने भी आशंका जाहिर की थी कि कहीं कोई और ही तो नहीं बम धमाके कर रहा है।
उधर आरएसएस के कार्यकर्ता बम धमाके करते थे, इधर आरएसएस हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स की तर्ज पर इस्लामिक आतंकवाद का ऐसा हौआ खड़ा कर देता था कि सभी का ध्यान सिर्फ मुसलमानों पर ही केन्द्रित हो जाता था। आरएसएस ने सुनियोजित तरीके से इस्लामिक आतंकवाद का ऐसा मिथक घढ़ा कि सभी को यह लगना कि आतंकवाद के पीछे मुसलमान ही हैं। हद यहां तक हो गयी कि देश के हर मुसलमान को शक की नजरों से देखा जाने लगा । हर मुसलमान आतंकवादी का पर्याय समझा जाने लगा। भारत का मुसलमान बचाव की मुद्रा में था। उसे यह नहीं सूझ रहा था कि वह क्या करे ? यहां तक हुआ कि दारुल उलूम देवबंद को आतंकवाद के खिलाफ फतवा तक देना पड़ा। जब मुसलमानों की तरफ से यह कहा गया कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं तो इसके जवाब में आरएसएस ने यह कहना शुरु किया कि यह सही है कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों है ? अब यह भी तो कहा जा सकता है कि जिन बम धमाकों में हिन्दुओं की संलिप्तता सामने आयी है, वे सभी संघी क्यों हैं? कुछ लोग तो यह आशंका भी व्यक्त करते रहे हैं कि इंडियन मुजाहिदीन के नाम से हिन्दुवादी संगठन ही बम धमाके कर रहे थे। यह संयोग नहीं हो सकता कि जब से बम धमाकों के पीछे हिन्दुवादी संगठनों का हाथ सामने आया है, तब से बम धमाके नहीं हो रहे हैं।
बम धमाकों में संघियों के नाम आने के बाद वे इस बात पर बहुत जोर दे रहे हैं कि हिन्दुओं को बदनाम करने की साजिश की जा रही है। हिन्दु धर्म और कर्म से आतंकवादी हो ही नहीं सकता। हम इससे भी आगे की बात कहते हैं, दुनिया के सभी धर्मों के भी सभी लोग आतंकवादी नहीं हो सकते। हां, कुछ लोग जरुर गुमराह हो सकते हैं। यही बात हिन्दुओं पर भी लागू होती है। और मुसलमानों पर भी। कुछ लोगों की गलत हरकतों की वजह से न तो पूरा समुदाय जिम्मेदार हो सकता है और न ही धर्म। हिन्दुओं में भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो आतंकवादी घटनाओं में लिप्त पाए गए हैं। इसलिए यह तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि हिन्दु धर्म और कर्म से आतंकवादी होते हैं। जब आरएसएस बम धमाकों के आरोपियों के पक्ष में बोलकर यह कहता है कि हिन्दुओं को बदनाम किया जा रहा है तो वह देश के तमाम हिन्दुओं को इमोशनल ब्लैकमेल करके उन्हें अपनी ओर लाना चाहता है।
आरएसएस इस बात को भी समझ ले कि वह इस देश के 85 प्रतिशत हिन्दुओं का अकेला प्रतिनिधि नहीं है। इस देश का बहुसंख्यक हिन्दु सैक्यूलर है। हिन्दुओं ने ही बम धमाकों में शामिल हिन्दुओं के चेहरे बेनकाब किए। हिन्दुओं ने ही गुजरात दंगों पर नरेन्द्र मोदी को कठघरे में खड़ा कर रखा है। हिन्दुओं ने ही बाबरी मस्जिद विध्वंस पर अफसोस और गुस्सा जताया था। ये हिन्दु ही हैं, जो आज केएस सुदर्शन के वाहियात बयान पर आरएसएस के कार्यालयों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन आरएसएस को इस बात का अफसोस रहता है कि इस देश के सभी हिन्दु साम्प्रदायिक क्यों नहीं हैं ? क्यों वे इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की उसकी योजना में शामिल नहीं होते? क्यों वे आरएसएस की हां में हां नहीं मिलाते ?



ये लेख विस्फोट डोट कॉम से सधन्यवाद लिया गया है.